समाज चिन्तक बाबूलाल बारोलिया (सेवानिवृत) का समाज के नाम एक सन्देश
दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l आज हम 21 वीं सदीं में अपना पदार्पण कर चुके है, लेकिन हम समझदार, बुद्धिमान और साधन सम्पन्न होने के बावजूद हमारा रैगर समाज सामाजिक सोच के कारण आज भी 19 वीं सदीं में जी रहा है । सामाजिक विकास वास्तव में मानसिकता की बदली हुई सोच है, जो समाज में उपस्थित कुरीतियों को नष्ट करने के लिए प्रेरित करता है । इसी विषय पर आधारित समाजहित की सोच के धनी सेवानिवृत बाबूलाल बारोलिया ने समाज के नाम एक सन्देश प्रसारित किया है जो समाजहित एक्सप्रेस के माध्यम से आपको प्रस्तुत है :
समाज के नाम संदेश
सम्मानित समाज बंधुओं, सादर प्रणाम । मैँ कोई समाज सुधारक नहीं हूं और ना ही किसी सामाजिक संगठन से जुड़ा हुआ हूँ, परन्तु समाज बंधु होने के नाते कुछ निजी विचार साझा करने की हिम्मत जुटा पा रहा हूँ, माने या ना माने अपनी अपनी सोच है ।
समाज सुधार के नाम पर वर्तमान में विभिन्न नामों से संगठन प्रचलित है । ज्यादातर संगठन निर्माण का उद्देश्य मात्र राजनीतिक लालसा ही होती है । इसमें भी कोई बुराई नहीं है, होनी भी चाहिए परन्तु प्राथमिकता समाज उत्थान की भी होनी चाहिए । संगठनों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक एकता के बिना राजनीतिक एकता गौण है । कुछ लोग समाज में अपना नाम और प्रतिष्ठा पाने के लिए भी संगठन का निर्माण कर लेते है जिसमें विभिन्न स्वार्थ और लालसा छिपी हुई होती है । मैं कुछ सामाजिक संगठनों के कार्यक्रम में बतौर दर्शक के रूप में उपस्थित रहा हूँ जहां मात्र अपने अपने लोगों को साफा, माला, शाल, स्मृति चिन्ह भेंट किये जाते है लेकिन सामाजिक सुधार, उत्थान करने एवं सामाजिक बुराइयों को मिटाने आदि का कोई जिक्र करते हुए नहीं सुना । हाँ इतना जरूर सुना है कि, बच्चों को शिक्षित करना चाहिए, संगठन को मजबूत बनाना चाहिए, संगठन को चलाने के लिए आर्थिक सहायता की जरूरत होती तो तन मन धन से सहयोग करना चाहिए आदि आदि ।
मंचो पर सम्मान पाना और सम्मान देना अच्छी बात है इस से सम्मानित व्यक्ति अपने आपको गौरवान्वित समझता है परन्तु मंच से नीचे उतरते ही सब कुछ विस्मृत हो जाता है । जिनको मात्र सम्मान पाने की लालसा होती है और सामाजिक सुधार के लिए किसी के सामने बुरा नहीं बनना चाहते है ऐसे व्यक्ति से सामाजिक सुधारों की अपेक्षा नगण्य होती है । मैंने मंचों पर यह कहते हुए भी सुना है कि मेरे बच्चे पढ़ लिख कर बहुत बड़े आदमी बनकर परिवार और समाज का नाम रोशन करें, इसके लिए रोज नियमित रूप से सुबह चार बजे उठकर नहा धोकर उनकी तरक्की की कामना के लिए मंदिर जाता हूँ, आश्चर्य होता है ऐसी सोच पर । बच्चों को मन्दिर में बैठे निर्जीव मूर्ति के आशीर्वाद की नहीं बल्कि मां बाप के तन मन धन के आशीर्वाद की जरूरत है । जो निर्जीव मूर्ति बोल नहीं सकती, चल फिर नहीं सकती, स्वयं कपड़े आदि पहनकर अपना श्रृंगार नही कर सकती और ये कार्य खुद इंसान करता है जिस भगवान की मूर्ति का निर्माण मनुष्य करता है वो आपको कैसा आशीर्वाद देगी । अगर आपको भगवान में आस्था ही है तो उस निराकार अदृश्य शक्ति पर आस्था रखो जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड को चला रही है जो किसी से कुछ नहीं मांगती सिर्फ देती ही देती है ।सबकी अपनी अपनी आस्था है लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जिन मंदिरों के निर्माण पर, मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा पर और उनके साथ साथ धर्मशालाओं पर अपने खून पसीने की कमाई से लाखों रुपये व्यय कर सकते है, तो क्या हमारी भावी पीढ़ी के भविष्य निर्माण के लिए शिक्षा मंदिर का निर्माण नहीं कर सकते। असहाय और गरीब लोगों के इलाज के लिए चिकित्सालय नहीं खोल सकते। जब हम यह आशा करते है कि मंदिर से हमें आय भी होती है और उस आय से हम समाज सुधार के कार्य कर सकते है तो क्या शिक्षा मंदिर और चिकित्सालय से आय की आशा नही की जा सकती है ।
यह कहते हुए भी सुना है कि मंदिर और धर्मशाला निर्माण से हम समाज के लोगों का कोई भी आयोजन होता है तो वहां एकत्रित होने के लिए जगह आसानी से उपलब्ध हो जाती है तो क्या शिक्षा मंदिर में वही जगह उपलब्ध नहीं हो पाएगी। सोच को विकसित करनी होगी। तभी हम समाज के लिए कुछ कर पाएंगे ।
भारत में सवर्ण व अन्य समाजों के हर जगह आपको स्कूल कॉलेज, विश्वविद्यालय मिल जाएंगे लेकिन रेगर समाज के नहीं क्योंकि जो लोग कभी वेद उपनिषद, शास्त्र आदि पढ़ने में व्यस्त रहते थे उन्होंने संविधान पढ़ना चालू कर दिया और हमने वेद और शास्त्र जो किसी युग में हमें इनको पढ़ना तो दूर छूने तक कि इजाजत नहीं थी को पढ़ना शुरू कर दिया ताकि धर्म के झंझाल में उलझे रहो ।
मेरा एक सवाल यह भी है कि आज समाज के जितने भी मंदिर बने हुए है जैसे गंगा माता मंदिर, विष्णु, शिवजी, रामदेव जी आदि उनमें हमारे समाज के लोगों के अलावा कितने अन्य समाज के लोग पूजा पाठ करने आते है । कितना चढ़ावा चढ़ाते है । जबकि हमारे लोग किसी भी समाज और जाति के बनाये मंदिरों में जाकर रुपया पैसा आदि चढ़ावा चढ़ाते रहते हो। मंदिर एक आमदनी का जरिया बन चुका है अतः आपको कोई नहीं रोकेगा जबकि किसी युग में आपकी परछाई से भी घृणा थी । जब कोई व्यक्ति गलती से आपके बनाये मंदिर में चला भी जाता है तो सबसे पहले यह पूछा जाएगा कि यह मंदिर किस समाज या जाति का है तो वे जाति का नाम सुनते ही लोग उल्टे पाव लौट जाएंगे । कहने का अर्थ यह है कि भगवान और देवी देवताओं को भी लोगों ने जातियों में बांट रखा है जबकि ईश्वर मात्र एक है ।
अतः मेरा यह निवेदन है कि मंदिर निर्माण या मन्दिर में पैसे आदि चढ़ाने से पहले यह विचार जरूर कर लेना चाहिए कि भगवान को कौनसे बच्चों को पालने है कौनसे परिवार को पालना है कौनसी रोजी रोटी का जुगाड़ करना है तो पैसे किसलिए? अगर पैसा चढ़ाना ही है, अगर मंदिर बनाना ही है तो ये ही पैसा उन बच्चों को दे जो शिक्षा के अभाव में अपनी आगे की पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहे है क्योंकि समाज पढ़ेगा तभी तो आगे बढ़ेगा। इसके अलावा जिनके पास रोजगार नहीं है उनको रोजगार देकर समाज उत्थान में सहयोग कर सकते है। बाबा साहब ने कहा था कि “मंदिर जाने वाले लोगों की लंबी कतारें, जिस दिन शिक्षालय की ओर बढ़ेगी, उस दिन मेरे इस देश को महाशक्ति बनने से कोई रोक नही सकता है।”
????कृपया बुरा लगे तो क्षमा प्रार्थी हूँ, आपका प्रतिपल शुभ हो????