आधुनिकता की दौड़ में एकाकी जीवन एक फैशन
✍ बाबू लाल बारोलिया, अजमेर
लोग कहते है जमाना बदल गया, लेकिन क्या जमाना स्वतः बदल गया या जमाने को हमारी महत्वाकांक्षाओं ने हमने ही मिलकर बदल दिया। जब हम अतीत के झरोखों में देखते है अथवा हमारे बुजुर्ग बताते है कि एक समय वो था जो हम संयुक्त परिवार में रहते थे। सबका खाना पीना, उठना बैठना, सोना सभी एक ही जगह होता था । कभी भी आपस में मनमुटाव, नाराजगी, नफरत लेशमात्र भी नहीं था , अनपढ़ अधिक मात्रा में थे लेकिन संस्कारों से परिपूर्ण थे। परिवार में जो सबसे अधिक बुजुर्ग थे, वही परिवार के मुखिया थे और उनकी हर बात को पूरा परिवार मानता था। विरोध करने की किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी। धीरे धीरे शिक्षा का प्रसार हुआ, सुख सुविधाओं आदि के संसाधनों का विकास हुआ , आर्थिक रूप से सशक्त होने लगे और स्वार्थवश संयुक्त परिवार टूटने लगे। ज्यों ज्यों शिक्षित होते गए, नौकरियां, व्यवसाय, तकनीकी और प्रौद्यौगिकी का विस्तार हुआ, देश छोड़कर विदेश गमन होने लगा, देशी संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति में विलय होने लगी, लोगों में अपनापन कम होने लगा। बड़ों की दखलंदाजी खलने लगी और मानसिकता बदलने लगी कि लोग स्वछंद पूर्वक रहने के लिए एकाकी जीवन अपनाने लगे। देखते देखते हम कहां से कहां आ गए। जो लोग ग्रामीण परिवेश में कच्चे मकानों में रहते थे, शहर की ओर पलायन करने लगे। जो एक कमरे में पूरा परिवार समा जाता था सबको अलग अलग कमरे चाहिए। जो जंगलों में शौचालय जाया करते थे, घर के किसी कोने में बैठकर नहा लिया करते थे अथवा कुएं बावड़ी और खेतों में जाकर नहा लिया करते थे, सबको घर में हर कमरे के साथ शौचालय और बाथरूम चाहिए। आजकल गांवों में भी यही स्थिति हो गई है। आय कम हो परंतु आधुनिक सुख सुविधाएं सभी को चाहिए विशेषकर मध्यम वर्गीय परिवार देखा देखी होड में अपना जीवन बर्बादी की ओर ले जा रहे है।
शहर में रहने वाला मध्यमवर्गीय कथित शिक्षित युवा आज के दौर में सबसे अधिक मानसिक तनाव का शिकार है। दिखावे की जिंदगी जीने को लालायित युवा अति महत्वाकांक्षा का इतना शिकार है कि समाज में दिखावे की जिंदगी जीने के लिए, अपने दोस्तों के बीच अपनी झूठी शान दिखाने के लिए कर्ज के बोझ तले दबने लगता है। अनेक कंपनियां क्रेडिट कार्ड और बैंक से कर्ज लेकर ईएमआई का भ्रमजाल भौतिक सुख सुविधा का दिवा स्वप्न दिखा देते हैं। महानगरों में चंद साल व्यतीत करने पर 0 एडवांस पर महंगे फ्लैट उपलब्ध हैं। बिल्डर अपना पैसा लेकर किनारे हो जाते हैं और बैंक की ईएमआई शुरू हो जाती है। फ्लैट की सजावट सुख सुविधा के लिए सबकुछ ईएमआई पर उपलब्ध है। लेकिन जब किस्त भरने का सिलसिला शुरू हो जाता है तो न फ्लैट का सुख मिलता है और न ही सजावटी सामानों का। बनावटी जीवन का दिवा स्वप्न सबसे अधिक इन्हीं युवाओं के जीवन को नर्क बनाया है। दिखावे की जिंदगी जीने की चाहत एक ऐसे जाल में फांस लेती है जो जिंदगी को ही खत्म करने के बारे में सोचती है। बहुत से ऐसे लोग है जो कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में अपनी जीवन लीला तक समाप्त करते देखे गए है। पीछे अपने परिवार को भी दुखों के समुद्र में डुबो देते है जो कभी बाहर नहीं निकल पाते। यह कैसा एकाकी जीवन है। इस एकाकी जीवन में घुट घुट मरने के अलावा किसी के पास कोई चारा नहीं रहता है। ऐसी सुख सुविधाएं किस काम की जो जीवन को लील जाय। बिना सोचे समझे एवं अपने बड़ों की सलाह लिए बिना कर्ज के बोझ तले दब जाने पर वे मानसिक तनाव के कारण किसी से कुछ कह भी नहीं पाते और अंदर ही अंदर घुटते रहते है, फिर उनके पास अंतिम उपाय मौत ही शेष रह जाती है।
इस डिजिटल युग में हम समाज से अलग हो गए। परिवार से अलग हो गए। अपनो से विचार विमर्श करना छोड़ दिए। इस आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति की दौड़ में एकांकी जीवन का फैशन आखिर हमें किस ओर ले जा रहा है। आज के युवाओं को इस विषय पर चिंतन मनन करने की आवश्यकता है अगर उन्हें अपने परिवार और समाज से लगाव है।
(डिस्क्लेमर: इस लेख में लेखक के निजी विचार हैं l लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है, इसके लिए समाजहित एक्सप्रेस उत्तरदायी नहीं है l)