✍ बाबू लाल बारोलिया, अजमेर
अंबेडकरवाद एक सामाजिक,शैक्षणिक, आर्थिक, संवैधानिक और राजनीतिक विचारधारा है जो विश्व के ज्ञान के प्रतीक और भारत के संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों पर आधारित है। अंबेडकरवाद जातिवाद और अस्पृश्यता के उन्मूलन, सामाजिक न्याय और समानता के लिए समर्पित है। यह विचारधारा भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता, न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है.
अंबेडकरवाद भारत के दलित और पिछड़े वर्गों के लिए एक आशा की किरण है। यह विचारधारा इन वर्गों को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का प्रयास करती है। अंबेडकरवाद ने भारत में दलित और पिछड़े वर्गों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाए हैं । इस विचारधारा ने इन वर्गों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों तक पहुंच प्रदान की है।
अंबेडकरवाद एक समग्र विचारधारा है जो भारत के सभी नागरिकों के लिए समानता और न्याय का आह्वान करती है। यह विचारधारा भारत को एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
मैंने स्वयं को कभी अंबेडकरवादी नहीं माना क्योंकि मैं यह बात बहुत अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अम्बेडकर जी की बताई राह का एक पथिक मात्र हूं। मुझमें असली अंबेडकरवादी होने के गुण मौजूद नहीं हैं। मैं बाबा साहेब द्वारा बुद्ध की बताई गई 22 प्रतिज्ञाओं का पालन नहीं कर पा रहा हूं। मैं सिर्फ आंबेडकरवाद का अध्येता हूं, प्रशंसक हूं, और समर्थक हूं, मगर मैं असली अंबेडकरवादी नहीं हूं। समाज बहुत बड़ा है, जहां अनेक ऐसी रूढ़िवादी परंपराएं है और सामाजिक कार्य है जो नहीं चाहते हुए भी करने पड़ते हैं जो एक सच्चे अंबेडकरवादी को नहीं करना चाहिए । मैंने तो यहां तक भी देखा है जो अपने आपको सच्चे अंबेडकरवादी घोषित कर रखे है परंतु मनुवादी कर्मकांड भी छद्म रूप से करते रहते है । अतः मैं ऐसे दोहरे चरित्र वालों की तरह दिखावा भी नहीं करता हूं।
आजादी के बाद दलित और पिछड़े वर्ग के लोग जितने शिक्षित और आर्थिक रूप से समृद्ध होते जा रहे है, आंबेडकरवाद का मूल स्वरूप ही बदलता दिखाई दे रहा है, आंबेडकरवाद में ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, मूर्ति पूजा आदि का कोई स्थान नहीं है। बाबा साहेब और गौतम बुद्ध ने कभी यह नहीं कहा था कि मेरी मूर्ति बनाकर पूजा करना उन्होंने कहा था कि हमारे बताए विचार, आदर्श और मार्ग पर चलना तभी समाज का कल्याण हो पाएगा । अतः आजकल जो आंबेडकरवाद चल रहा है, वो वास्तव में आंबेडकरवाद है ही नहीं।जो भी आंबेडकरवाद का शोर कर रहे है उनको इसका ज्ञान नहीं है, उन्होंने केवल अपनी स्वार्थ सिद्धी का साधन अपना लिया है। आजकल के अंबेडकरवादी सिर्फ बाबा साहेब की जय जयकार करने, उनके ऊपर भाषण देने,पुष्प चढ़ाने, वंदन करने, अगरबत्ती/मोमबत्ती जलाकर पूजा करने, जय भीम के नारे जोर जोर से लगाने, कलश यात्रा निकालने तथा मैं ही बाबा साहब का सच्चा अनुयायी हूं का जोरों से प्रचार करना रह गया है तथा मनुवाद की चासनी में डुबोकर रख दिया है जो मूल अंबेडकरवादी विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है।
वर्तमान में देखा जाय तो हमने आंबेडकरवाद का मूल स्वरूप ही बदल दिया और आंबेडकरवाद के नाम से विभिन्न संगठन, संस्थाएं आदि गठित कर सिर्फ लोगों को गुमराह किया जा रहा है।अक्सर देखा, सुना और पढ़ा जाता है कि दलित समुदाय बाबा साहेब के नाम पर दूसरे धर्म ,संप्रदाय ,जाति या वर्ग विशेष की दिन रात आलोचनाएं करता रहता है और उनकी आस्था ,विश्वास को ठेस पहुंचाता रहता है और समाज में कटुता फैलाता है।बाबा साहेब एक धार्मिक कट्टर के पोषक थे उनका कहना था जो व्यक्ति जिस धर्म में आस्था रखता हो वे उसी को माने लेकिन वे उस धर्म को नहीं माने जिसमें कटुता और भेदभाव हो। इसीलिए संविधान में बाबा साहेब ने अन्य सभी अधिकारों के साथ साथ सभी को धार्मिक स्वतंत्रता भी दी है हर व्यक्ति स्वतंत्र है किसी भी धर्म या संप्रदाय और धार्मिक पद्धतियों को मानने हेतु ,साथ ही उसे अधिकार है कि वो किसी भी पद्धति या तरीके से अपने आस्था और विश्वास को प्रकट करें , मनाए ,और आयोजित करें, साथ ही भारतीय कानून में भी उसकी इस स्वतंत्रता और अधिकारों को बनाए रखने हेतु प्रावधान है । यदि कोई उसके आस्था ,विश्वास के धार्मिक प्रतीकों या आयोजनों की आलोचना करता है या ठेस पहुंचाता है तो उस व्यक्ति के विरुद्ध अवश्य कानूनी कार्रवाई होगी जो इस तरह का अपराध करता है । कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अन्य धार्मिक प्रतीकों, आयोजनों और पद्धतियों की खुल कर आलोचना करते हैं और आजकल तो सोशल मीडिया पर इसको प्रचारित प्रसारित भी करते हैं और स्वयं को बुद्धिजीवी दिखाने का प्रयास भी करते हैं। जब आप किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करेंगे तो आपके खिलाफ संवैधानिक और कानूनी दृष्टि से कार्यवाही होने की पूर्ण संभावना है जो सभी पर लागू है । इसको इस तरह भी समझ सकते हैं कि दलित समाज के आस्था, विश्वास के महानायक बाबा साहेब आंबेडकर की जब तस्वीर ,मूर्ति ,या उनकी लिखी पुस्तकों की कोई आलोचना करता है ,तोड़फोड़ करता है या फिर उनके कार्यक्रमों को आयोजित करने से कोई रोकता है या फिर उनके बारे में गलत बोलता, लिखता है तो दलित समाज भी सामने वाले पक्ष के खिलाफ कानूनी कार्यवाही हेतु अग्रसर होता है और उसके खिलाफ रोष भी प्रकट करता है , और यदि कोई अति करता है तो इसके लिए भारतीय कानून के साथ साथ अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम भी अस्तित्व में है, जिसके माध्यम से सामने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है और आवश्यकता पड़ने पर कार्यवाही की भी जा रही है।
वर्तमान डिजिटल युग में विभिन्न सोशल मीडिया की वजह से समाज में सामान्य वर्ग और दलित वर्ग दोनो के मध्य इस धार्मिक एवम् सामाजिक रीति रिवाजों के आयोजनों और रहन सहन को लेकर लगातार वाद विवाद ,झगड़े फसाद ,मुकदमे बाजियां चल रही है जो किसी भी शिक्षित, सभ्य समाज के लिए अशोभनीय है क्योंकि मानव मानव के प्रति यह आलोचनाएं और विवाद सिर्फ और सिर्फ वैमनस्यता ही फैलाती है ।
किसी भी धर्म ,संप्रदाय ,वर्ग ,आस्था के प्रतीकों ,या धार्मिक आयोजनों को मानना या ना मानना सबका अपना अपना व्यक्तिगत मामला है इसके लिए सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं से शुरुआत करनी होती है ।
महात्मा बुद्ध स्वयं कह गए हैं अप्प दीपो भव अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो।पहले खुद में परिवर्तन लाओ ,फिर घर के सदस्यों में लाने का प्रयास करो ,लेकिन घर में भी आप सिर्फ प्रयास मात्र कर सकते हैं किसी पर थोप नही सकते ना ही दबाव बना सकते हो , अर्थात् रास्ता दिखा सकते हो ,उस मार्ग पर चलना या ना चलना सभी की अपनी अपनी मर्जी है ।महात्मा बुद्ध भी यही कहते थे कि मैं सिर्फ ” मार्ग प्रशस्त कर सकता हूं उसपर चलना या नही चलना यह आप को स्वयं करना है”।
बुद्ध और अंबेडकर का परंपरागत धर्म ,आस्था ,विश्वाश पद्धतियों से हटना और नई दिशा में चलना यह एक बहुत लंबी प्रक्रिया थी जिसमे दोनो ने ही गहन अध्ययन, मनन, चिंतन तो किया ही था साथ ही स्वयं से इसके लिए प्रयोग भी किए थे ,,
दोनों ही आलोचनाओं से दूर रह कर मानने या ना मानने की राह पर चलते थे और जो विषय मानने योग्य नहीं लगते थे उनके लिए स्पष्ट कहते थे कि मैं यह स्वीकार नहीं करता हूं परंतु उन्होंने किसी के लिए यह नही कहा मैं नहीं करता तो आप भी नही करें या यह मुझे पसंद नही है तो आप भी इसे पसंद नही करें।
अतः आज दलित समाज के उन लोगों को चिंतन और मनन करना चाहिए जो सारा दिन सिर्फ और सिर्फ धार्मिक आलोचना तो करते हैं लेकिन स्वयं नही बदलते ना ही उनके परिवार के सदस्य बदलते हैं।आलोचना करने वालों में वो ज्यादा शामिल हैं जिन्होंने ना तो अपना धर्म बदला होता है ना धार्मिक प्रक्रियाएं बदली होती हैं, ना ही अपनी सोच बदली है बल्कि उनके घरों के बाहरी कक्षों में तो बुद्ध ,बाबा साहेब की बड़ी बड़ी तस्वीर होती है, उनकी लिखी पुस्तकों भी सजाई हुई रहती है और बड़ी बड़ी बातें भी होती है, साथ ही आंतरिक कक्षों में वही पुरानी परंपराएं होती रहती है , और सभी प्रकार के आयोजनों में वही पुरानी धार्मिक परंपरा या आस्था प्रकट हो ही जाती है तो फिर जब दलित स्वयं ही नही बदलते तो फिर किसी की भीआलोचना ,कटाक्ष ,व्यंग्य आदि नहीं करना चाहिए।अब सवाल यह है कि क्या ब्राह्मणवाद, मनुवाद, धार्मिक आस्था के प्रतीक ,धार्मिक आयोजनों ,यात्राओं आदि की आलोचना करने भर से किसी व्यक्ति और समाज में कोई परिवर्तन आ सकता है? कदापि नहीं बल्कि इससे तो सिर्फ वैमनस्यता बढ़ती है या कानूनी कार्रवाई बढ़ती है । समाज में बदलाव स्वयं के बदलने से आ पाएगा, अतः बदलना ही है तो स्वयं को बदले, स्वयं के कार्यों और मानसिकता को बदलें,तरीकों को बदलें, बोलने की शैली जैसे भाषा ,शब्दों को बदले, एक दूसरे की आलोचना करने के बजाय लोगों को अपने स्वयं के कार्यों से और व्यवहार से प्रेरित करें ,स्वयं उदाहरण बने अर्थात् बदलाव के लिए स्वयं को उस राह पर चलाएं जिसकी दूसरों से उम्मीद करते है, क्योंकि यह बहुत लंबी और गहन प्रक्रिया है जो आसन नहीं है ।
अंत में मेरा अनुरोध है कि अंबेडकरवादी कहने वाले प्रबुद्धजन कृपया ध्यान दें कि “मै अंबेडकरवादी हूँ” और में आंबेडकरवाद का प्रायोजक हूं, केवल इतना कहने से कुछ नही होने वाला है।
अम्बेडकरवाद के रंग में स्वयं को सरोबार करना पड़ेगा और अम्बेडकर जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी जब हम उनके आंदोलन की ज्योति हमेशा जलाए रखेंगे और तभी हम एक सच्चे अंबेडकरवादी कहलायेंगे
(डिस्क्लेमर: इस लेख में लेखक के निजी विचार हैं l लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है, इसके लिए समाजहित एक्सप्रेस उत्तरदायी नहीं है l)