Saturday 12 October 2024 12:16 PM
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भौतिकतावादी युग में टूटते परिवार

दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l वर्तमान में हम सभी भौतिकतावादी युग में जी रहे है । हमारा सामाजिक परिवेश बदल रहा है l जहाँ पहले सयुंक्त परिवार होते थे, और परिवार मे बाल विधवा, अनाथ बच्चे, व बुजुर्ग सभी का समय अच्छा गुजर जाया करता था l कोई किसी को बोझ नहीं समझता था l सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से बनी हुई थी, जिसमे परिवार मे एक दूसरे के प्रति स्नेह व सद्रभाव का भाव होता था l एक दूसरे के प्रति प्रेम की असीम गंगा बहती थी l युवा होते बच्चो के लिए सामाजिक नियम होते थे, सभी लोग सामाजिक मर्यादा मे रहते थे l

धीरे-धीरे समाज की परिभाषा बदल गई और हम अब एकल परिवार मे रहने लगे l जिससे हमारे समाजिक मूल्यो व जीवन मूल्यो के मायने बदल गये l सामाजिक मूल्यो का विघटन हो गया l युवा पीढ़ी उदन्ड होती जा रही है l मर्यादाएं टूट रही हैं, लावारिस नवजात बच्चे सडको पर पडे मिलते हैं l वृद्ध परिवार के लिए बोझ बन गया l भौतिकवाद का दूसरा नाम भोगवाद भी है । यानी खाओ, पीओ, मस्त रहो । यह भौतिकतावादी दृष्टिकोण हमें सामूहिकता से एकात्मकता की ओर धकेले जा रहा है । पश्चिमी सभ्यता के आगोश में समाये हुए आभाषी आनंद की दुनिया में हिचकोले ले रहे हैं और इन सब में हमारे संस्कार और संस्कृति का पतन हो रहा है ।

आज एक परिवार के सदस्य कहने के लिए तो एक छत के नीचे रहते हैं, लेकिन भौतिक संसाधनों और उपकरणों ने इनके बीच कहीं न कहीं कुछ संवेदनशून्यता की लकीरें खींच दी हैं । मानव अब स्वयं में खोया-खोया नजर आता है । जरा सोचिए हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होते जा रहे हैं । संसार इतना संकुचित होता नजर आ रहा, इसमें हम स्वयं के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं, माता-पिता की सेवा करने की भावनाएं छिपती जा रही है । आधुनिक सुख-सुविधाओं के उपकरणों से लैस छह फीट के कमरे में टीवी के सामने वृद्ध माता-पिता को आरामगाह उपलब्ध कराकर लोग अपना धर्म और कर्म पूरा हुआ मान लेते हैं । लेकिन फुर्सत के दो पल उनके साथ बैठकर बिताने को नहीं है । बेचारे लाचार मां-बाप बेजान अनुभूति के साथ अपनी शेष सांसे गिन रहे होते हैं, क्या यही हमारी संस्कृति है । इस विषय पर एक-एक मनुष्य को विचार करना होगा ।

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