मानव माया के आवरण में जन्म लेने के दिन से ही अपना मूल उद्देश्य भूल जाता है
दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l
गीतकार अभिलाष ने बहुत ही सुंदर शब्दों में एक गीत लिखा था, जिसके एक एक बोल से आप परिचित है l
“संसार है एक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं, ना जाने कहाँ जायें हम बहते धारे है l”
कुदरत ने इस संसार को अजूबा बना रखा है । उसके नियमों के तारतम्य को समझना आसान नहीं है l जिन मिट्टी के मानवीय पुतलों में सर्वोच्च शक्ति ने आत्मा का प्रवेश कराकर अपने इशारे पर नचाने के लिए वक्त की चाभी भर संसार के परिदृश्य में समाहित कर लोक कल्याण हेतु समर्पित किया l वहीं मिट्टी का मानवीय पुतला इस कदर चालाक निकला की कुदरत की बनाई गई व्यवस्था को भी आस्था की चासनी में डुबोकर अपने आप को दैवीय मानव घोषित कर स्वयं को जगत का पालनहार बन बैठा l जबकि अपने आप को दैवीय मानव बताने वाले को यह तक पता नहीं कि उस सर्वोच्च शक्ति ने उसके जीवन की कितनी चाभी भरी है, वह कब तक चलेगी l
मानव माया के आवरण में जन्म लेने के दिन से ही अपना मूल उद्देश्य भूल जाता है l जैसे जैसे बढती उम्र के साथ एक एक कदम बढ़ाता जाता है वैसे ही वैसे मतलबी दुनिया के स्याह आवरण में सब कुछ भूलता जाता है l धन- वैभव-सुख-समृद्धि, अपने-पराए के भेद भाव के साथ ही मानव कल्याण के उस सूत्र को भूल जाता है l मानव जीवन ही मानव कल्याण करने की आखरी सीढ़ी होता है ।
वर्तमान में आधुनिकता के आवरण में जहां मानव विलासिता का जीवन पाने के लिए इतना मतलबी होकर अपना अतीत भूल रहा है और लगातार इसका दंड भी भोग रहा है । आज का परिवेश इन्सानियत के लिए प्रदूषण भरा है l हर आदमी भविष्य के सुखद सपने सजाते हुए वर्तमान को प्रदूषित कर रहा है । हर मानव यह भी जानता हैं कि अंत समय में साथ कुछ नहीं जायेगा, नंगे पांव आये थे नंगे पांव ही जाना है l फिर भी हर मानव धन सम्पदा का दीवाना है । किसी भी मानव को यह भी नहीं पता, जिसको वह कह रहा अपना, वह बेगाना है । जीवन का यह सफ़र तो केवल मुसाफिर खाना है l मुसाफिर खाने में कौन अपना और कौन पराया है l
सुबह शाम दिन रात अपनों के लिए हर कोई है बेचैन, जबकि खुद की सांस भी उधारी है, मिट्टी की काया भी पट्टे पर है, हर पल मौत पीछा कर रही है l मानव अंतिम समय तक अपना को अहम् पीला रहता है उन्ही के लिए भविष्य के सपनों में खोया रहता है । सभी मानवीय सत्कर्मो को भी त्याग देता है l मुगालते में न रहे, कुछ भी अपने हाथ में नहीं है, कर्मफल भोगना निश्चित है l जिसका जब जीवन मंच पर रोल खत्म हो जायेगा तो पर्दा गिर जायेगा और उस आत्मा का जाना भी निश्चित है l कर्म के अनुसार ही आखरी सफर का अनुगमन भी तय है । जीवन के हर पल को मानवीय सत्कर्म के साथ जिए कुछ भी साथ नहीं जायेगा । सब यही रह जायेगा । न कोई अपना है न पराया है, सिर्फ यह मोहमाया है ।