दहेज प्रथा को रोकने के लिए समाज के प्रबुद्ध लोगो और युवाओ को आगे आना चाहिए
दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l समाज में दहेज प्रथा एक अभिशाप है । दहेज प्रथा के चलते गरीब लोगों को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है । सरकार दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए सालों से अभियान चला रही है और उसका असर भी हो रहा है लेकिन आज भी देश के अधिकतर इलाकों में शादियों में दहेज लिया और दिया जा रहा है । वैसे भी समाज में बदलाव लाने की जिम्मेदारी सरकार से ज्यादा आम लोगों की है ।
सरकार समय-समय पर महिलाओं की सुरक्षा और उन पर अत्याचार करने वालों को दंडित करने के लिए कानून बनाती रही है । 1961 में दहेज निषेध अधिनियम (1961 का अधिनियम 28) पारित किया गया था, जिसमें दहेज लेने या देने पर रोक लगाई गई थी । आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम 1983 (1983 का अधिनियम 46) द्वारा दंड संहिता में अध्याय XXA को धारा 498A के साथ शामिल किया गया l दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 को दहेज़ (निषेध) अधिनियम संशोधन अधिनियम 1984 और 1986 के तौर पर संशोधित किया गया ।
समाज के प्रबुद्ध लोगो को सोचना चाहिए कि विवाह जैसे पवित्र बंधन को भौतिक संपत्ति के बजाय आपसी सम्मान, समझ और साझा मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए। समाज के युवा निर्णय ले कि अपनी शादी के समय दहेज की स्वीकृति को दृढ़ता से अस्वीकार कर समाजहित में एक प्रेरणादायक मिसाल कायम करे । आज के समय में युवाओ द्वारा सदियों पुरानी सामाजिक दहेज़ प्रथा के उन्मूलन का निर्णय लेने से समानता, सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा देने की दिशा में एक सराहनीय कदम होगा । दहेज़ प्रथा ने लंबे समय से वैवाहिक पवित्र रिश्तो को प्रभावित किया है ।
दहेज निषेध अधिनियम 1961 के अनुसार दहेज लेने, देने या इसके लेन-देन में सहयोग करने पर सजा और जुर्माने का प्रावधान है ।