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2 नवंबर – अखिल भारतीय रैगर महासभा का गौरवशाली स्थापना दिवस: रैगर एकता की अमर चिंगारी

🙏🌹️ बाबू लाल बारोलिया, अजमेर ️🌹🙏

ओ मेरे प्रिय रैगर बंधुओं! हम प्रतिवर्ष 2 नवंबर को रैगर दिवस के रूप में मनाते हुए सोशल मीडिया पर बधाईयों का तांता लगा रहे है जबकि किसी दिवस को मनाने का वास्तविक तात्पर्य होता है कि उस दिन किसी की उत्पत्ति होना? तो यहां यह सवाल उठता है क्या रैगर समाज की उत्पत्ति 2 नवंबर 1944 को हुई थी, जबकि उस दिन समाज की एकता की चिंगारी के रूप में  अखिल भारतीय रैगर महासभा का उदय हुआ था, अतः वह तारीख जो रैगर समाज के हृदय में सुलगती चिंगारी है – न कि कोई ‘रैगर दिवस’ की हृदयविदारक भ्रांति! यह चिंगारी जो आंसुओं से नहाई हुई है, जो पूर्वजों के रक्त से सींची गई है।*अतः मेरा यह आलेख रैगर दिवस के रूप में नहीं होकर अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना का गौरवशाली दिवस मनाने के संबंध में परिलक्षित किया है। उम्मीद है समाज बंधु इतिहास के झरोखों में झांक कर रैगर दिवस की भ्रांति को दूर करने का प्रयास करेंगे।

ओ, मेरे रैगर समाज के प्यारे, दुखी बंधुओं! ओ मेरी उन बहनों के आंसू जो रातों को चुपके-चुपके बहाते हैं! आज जब हम 2 नवंबर को अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना के रूप में स्मरण करते हैं,(रैगर दिवस नहीं)  तो हृदय में एक ऐसी टीस उठती है जो सीने को चीर देती है – एक टीस जो आंसुओं की उफान भरी नदी बनकर, हर कोने को भिगो देना चाहती है। यह दिवस केवल एक तारीख नहीं, बल्कि उन अनगिनत पीड़ाओं की चीखती साक्षी है, जो हमारे पूर्वजों ने सहन कीं, जैसे कोई मां अपने बच्चे के लिए अपना खून बहाती हो। उन महान संतों की अमर पुकार है यह, जिन्होंने अपनी अंतिम सांस तक, रोते-रोते, समाज को एक सूत्र में बांधने का संकल्प लिया – जैसे कोई पिता अपनी संतान के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दे। धर्मगुरु ज्ञानस्वरूप जी महाराज और स्वामी आत्माराम जी लक्ष्य – ये दो नाम तो बस नाम नहीं, रैगर समाज की धड़कन हैं, जो आज भी हमारे सीने में तड़पते हुए, करुण स्वर में पुकारते हैं: “बेटा, ओ मेरे लाल, मत भूलना अपनी जड़ों को… मत छोड़ना एकता का वह रक्तरंजित दामन, जो मां की गोद की तरह गर्माहट देता है।” उनके भजन-कीर्तन की धुनें आज भी कानों में गूंजती हैं, जैसे कोई टूटा हुआ वीणा जो दर्द की सिसकियां ले रही हो – सुलाती तो हैं हमें नींद में, लेकिन जागृत कर देती हैं उस दर्द से जो रातों को सोने नहीं देता। वे आध्यात्मिक संत थे, लेकिन उनका संदेश था – अंधविश्वास की उस काली, घुटन भरी रात को चीरकर, पाखंड की जंजीरों को खून से लथपथ तोड़कर, कुप्रथाओं की लपटों में झुलसकर, और नशे की उस विषैली धारा को रोककर, जो हमारे युवाओं को निगल जाती है, एक नई सुबह लाना। ओ भाइयो-बहनो, ओ मेरे दुखों के साथी, क्या हमने उनकी उस करुण पुकार को सुन लिया? या फिर हम भी आंसुओं में डूबे, उनकी याद को भूल चुके हैं? अफसोस, कि आज ‘रैगर दिवस’ नामक एक क्रूर भ्रांति ने इस पावन तिथि को अपहरण कर लिया है, जैसे कोई चोर मां की गोद से बच्चे को छीन ले – जबकि वास्तव में यह अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना का गौरवशाली, स्वाभिमान से भरा दिवस है  – एकता की नींव, जो पूर्वजों के हृदय से निकली है!

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संघर्ष की रक्तिमा, एकता का रक्तदान – ‘रैगर दिवस’ की भ्रांति का करुण खंडन

ओ, मेरे समाज बंधुओं,कल्पना कीजिए उस दौर को – 1944 का वह नवंबर का महीना, जब रैगर समाज की छाती पर छुआछूत का पहाड़ कुचल रहा था, जैसे कोई क्रूर जंतु मां को लहूलुहान कर रहा हो; अत्याचार की आंधी उड़ रही थी, जो घर-घर को उजाड़ देती; और अन्याय की ज्वाला हर कोने को भस्म कर रही थी, जैसे कोई आग मां के आंसू सुखा दे। तब ज्ञानस्वरूप जी महाराज की आंखों में आंसू थे – वे आंसू जो नमक की तरह नजरों को चुभते थे, लेकिन हृदय में अटल विश्वास, जैसे कोई दीपक अंधेरे में टिमटिमाता हो। आत्माराम जी लक्ष्य के स्वर में दर्द था – वह दर्द जो सीने को फाड़ देता, लेकिन भजन में क्रांति की गूंज, जैसे कोई मां की लोरी में छिपी हुंकार। 2 नवंबर को दौसा के धूल भरे मैदान में प्रथम अखिल भारतीय रैगर महासभा का अधिवेशन – वह कोई एक साधारण सभा नहीं, बल्कि रक्त के आंसुओं से सींची गई एक क्रांति की नींव थी, जो मिट्टी को गीला कर, फूल उगाने का वादा करती। अखिल भारतीय रैगर महासभा का गठन हुआ, और पारित प्रस्तावों ने समाज को दिशा प्रदान की – जैसे किसी घायल के घाव पर मां द्वारा औषिधि का लेप लगाया गया हो। शिक्षा का दीपक जलाया, जो अंधेरे को चीरता; आर्थिक शोषण के विरुद्ध तलवार चली, जो लहू से लथपथ थी; छुआछूत की दीवारें ढहाईं, जो सदियों की जंजीरें तोड़तीं। वहाँ से जो आवाज़ उठी – “हम बराबरी चाहते हैं, भिक्षा नहीं – वह आवाज़ तो पूरे देश में रैगर समाज के सम्मान की करुण पुकार बन गई, जैसे कोई बच्चा भूख से तड़पता हो। महासभा के उद्देश्यों ने समाज को एक नई दिशा दी, जैसे कोई खोया हुआ रास्ता फिर से मिल जाए। कई दशकों तक रैगर समाज के लोग अपने हक़, अधिकार और सम्मान की लड़ाई को इन्हीं संतों की प्रेरणा से आगे बढ़ाते रहे – रोते हुए, लड़ते हुए, लेकिन कभी हार न मानते।

वे संत केवल बोलते नहीं थे; वे रोते थे अपने समाज के लिए, जैसे कोई पिता बेटे की पीड़ा में अपने आंसू बहाता हो; लड़े थे हर सांस से, जैसे कोई योद्धा अंतिम क्षण तक तलवार थामे। ओ रैगर वीरों, ओ मेरे दुखभरे हृदयों, क्या तुम्हें महसूस होता है वह दर्द? वह गौरव जो स्वतंत्र भारत की मिट्टी में मिला, लेकिन गांधीजी की हरिजन पुकार से प्रेरित होकर रैगर समाज ने जो पहचान गढ़ी, वह आज भी हमें रोमांचित कर देती है – लेकिन साथ ही आंसू भी बहा देती है। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की वह दर्दभरी आवाज जो सामाजिक समरसता का रस घोल रही थी, जैसे कोई औषधि घाव भरती हो, यह दिवस तो हमें याद दिलाता है – हमारी जड़ें कितनी गहरी हैं, कितनी रक्तरंजित, कितनी आंसू-सींची हुईं!

अब प्रश्न उठता है, ओ मेरे भाइयों बहनों, क्यों इसे ‘रैगर दिवस’ कहें? क्योंकि दिवस मनाने का अर्थ होता है किसी की उत्पत्ति या जन्म का स्मरण – जैसे कोई बच्चा मां की कोख से निकले – जबकि रैगर समाज की उत्पत्ति तो सदियों पुरानी है, चर्मकार परंपरा से जुड़ी वैदिक जड़ें, जो प्राचीन काल से ही हमारे हृदय में धड़क रही हैं, जैसे कोई अमर धुन। 2 नवंबर 1944 को हुई तो महासभा की स्थापना थी – वह क्रांति जो बिखरे आंसुओं को एकजुट करती। इसे ‘रैगर दिवस’ कहना ऐतिहासिक भ्रांति है, जो संतों के योगदान को चाकू की तरह चीर देती, जैसे कोई पुण्य को अपवित्र कर दे। इसके विपरीत, अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना दिवस का औचित्य अटल है, हृदयस्पर्शी है: यह वह चिंगारी है जिसने बिखरे हुए समाज को एक सूत्र में बांधा, जैसे मां अपने बच्चों को गोद में समेट ले; सामाजिक सुधारों की नींव रखी, जो आंसुओं से पगी; और छुआछूत-अन्याय के खिलाफ संगठित संघर्ष का प्रतीक बनी, जो आज भी हमें रोने पर मजबूर कर देती। यह दिवस एकता का उत्सव है, न कि जन्म का – और यही इसका सच्चा, करुण औचित्य है, जो हमें पूर्वजों की तपस्या से जोड़ता है, जैसे कोई पुल टूटे हृदयों को जोड़े।

वर्तमान की पीड़ा: खोई हुई ज्योति, टूटे हुए सपने – पदाधिकारियों की उपेक्षा का हृदयविदारक अफसोस

ओ मेरे समाज बंधुओं, आज, अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना के 81 वर्ष बाद, हृदय क्यों सिहर जाता है, जैसे कोई बिजली का करंट दौड़ जाए? क्यों आंखें नम हो जाती हैं सोशल मीडिया की उन खोखली, ठंडी बधाइयों को देखकर, जो ‘रैगर दिवस’ की भ्रांति को बढ़ावा देती हैं, जैसे कोई नकली फूल सच्चे दर्द को ढक ले? यह पावन तिथि कभी धरातल पर उतरती ही नहीं; बस वर्चुअल दुनिया में शुभकामनाओं की बौछार हो जाती है, और दिल टूट जाता है – टुकड़ों में, जैसे कोई कांच का खिलौना। अफसोस तो तब और गहरा, और भी करुण हो जाता है जब हम देखते हैं कि जिस महासभा के पदाधिकारियों को इस स्थापना दिवस को सबसे पहले, सबसे गहराई से मनाना चाहिए – क्योंकि वे संतों के वारिस हैं, समाज सुधार के  संरक्षक हैं – उन्होंने इसे उपेक्षित कर दिया, जैसे कोई मां अपने बच्चे को भूल जाए। क्यों?आखिर ऐसा क्यों? क्या राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वह आग ने उन्हें अंधा कर दिया, जो हृदय को जला दे? क्या गुटबाजी और व्यक्तिगत स्वार्थों ने इस एकता के मंदिर को अपनी महत्वाकांक्षाओं का क्रूर अखाड़ा बना दिया, जहां आंसू बहाने की जगह साजिशें रची जाती हैं? वह संगठन जो समाज सुधार और एकता का प्रतीक था, आज व्यक्तिगत स्वार्थों और गुटबाज़ी की भेंट चढ़ता जा रहा है – जैसे कोई सुंदर फूल कांटों में कुचल दिया जाए। महासभा के वर्तमान कार्यकारिणी के पदाधिकारी, जो कभी संतों के वारिस थे, अब औपचारिकताओं के बंधन में जकड़े हैं, जैसे कोई कैदी अपनी ही जंजीरों में। राजनीति का अखाड़ा बन चुका है वह मंदिर, जो एकता का था – यह दर्द तो सीने को फाड़ देता! वे उद्देश्य – सामाजिक जागृति, बुराइयों का संहार – कहीं खो गए हैं, जैसे कोई खोया हुआ बच्चा मां की गोद से दूर, रोता फिरता हो। आधुनिक संत, जो ज्ञानस्वरूप जी और आत्माराम जी के नाम पर भजन गाते हैं, उनके हृदय में स्वार्थ के कांटें चुभे हैं – जैसे कोई कांटा फूल को मुरझा दे। पूजा-पाठ, हवन-कीर्तन तो चलते हैं, लेकिन मनुवादी सोच की दलदल में डूबे वे समाज की पीड़ा को क्यों नहीं सुनते? क्यों उनके कान बहरे हो गए हैं उन सिसकियों के लिए जो रातों को गूंजती हैं? संत आत्माराम जी लक्ष्य और ज्ञानस्वरूप जी महाराज के मिशन — “सामाजिक समरसता और अन्याय के खिलाफ संघर्ष — से दूर होते जा रहे हैं, जैसे कोई नदी अपनी धारा भूल जाए। नशे की आग अभी भी जल रही है, जो युवाओं को भस्म कर देती; कुप्रथाओं के साये लंबे हैं, जो छाया में छिपे दर्द को बढ़ाते; छुआछूत के घाव हरे हैं, जो हर स्पर्श में सुलगते। आर्थिक मजबूती आई है – चमड़ा उद्योग की चमक, शिक्षा की किरणें – लेकिन एकता का अभाव?  वह तो हमें अंदर से खोखला कर रहा है, जैसे कोई मां बिना संतान के, रो-रोकर जी रही हो। राजनीतिक गोलबंदी ने हमें तोड़ दिया, युवा चकाचौंध में भटक रहे हैं, जैसे खोए हुए भेड़िए। ओ मेरे समाज, ओ मेरे दुखों के सागर, क्या यही हमारा भाग्य? क्या संतों की तपस्या, उनके आंसू – वे आंसू जो रेगिस्तान में फूल उगाते – व्यर्थ चले गए? और पदाधिकारियों की यह उपेक्षा – क्यों? क्या वे भूल गए कि महासभा उनकी जिम्मेदारी है, न कि सत्ता और पदलोलुपता का ठंडा साधन? यह अफसोस तो हृदय को चीर देता, आंसू रुकते ही नहीं!

जागृति की पुकार: आंसुओं से संकल्प, प्रेरणा की ज्वाला – स्थापना दिवस को पुनर्जीवित करें

मेरे बंधुओं, अब आवश्यकता है कि रैगर समाज के प्रत्येक व्यक्ति — विशेषकर युवा वर्ग, जो मां की गोद की तरह कोमल हैं – को अपने अतीत की इस गौरवशाली, आंसू-सींची धरोहर से प्रेरणा लेकर नए युग की नींव रखनी चाहिए, जैसे कोई बीज रोते हुए अंकुरित हो। अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना दिवस सिर्फ “शुभकामनाओं का नहीं, बल्कि संकल्पों का दिवस होना चाहिए – वे संकल्प जो आंसुओं से गीले हों, समाज सुधार के लिए ठोस कदम उठाने का, महासभा को पुनः सामाजिक आंदोलन का केंद्र बनाने का, तथा संत आत्माराम जी लक्ष्य और ज्ञानस्वरूप जी महाराज के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का, जैसे कोई मां अपनी कहानी गाती हो। पदाधिकारियों को भी जागना होगा – ओ मेरे भाइयों, बहनों, जागो! इस उपेक्षा को बंद कर, स्थापना दिवस को अपनी प्राथमिकता बनाएं, क्योंकि यही उनकी सच्ची जिम्मेदारी है, जो हृदय से निकले।

ज्ञानस्वरूप जी की वह दृष्टि, जैसे कोई मां की करुण नजर; आत्माराम जी का वह स्वर, जैसे कोई पिता की सिसकी – वे आज भी गूंज रहे हैं: “उठो मेरे लाल, एक हो जाओ, जियो तो सार्थक जियो – रोते हुए, लेकिन मजबूत होकर!” आइए, आंसुओं को पोंछकर – नहीं, उन्हें बहाकर – संकल्प लें, जैसे कोई नदी बाढ़ में उफनती हो:

*एकता का दर्दमिश्रित आलिंगन:* महासभा को राजनीति की आग से बचाएं, सामाजिक कार्यों की मशाल थामें – वह मशाल जो आंसुओं से जलती। गांव-गांव में युवा सभाएं बुलाएं, जहां नशामुक्ति के आंसू बहें, जैसे कोई नदी शुद्ध हो; शिक्षा के दीप जलें, जो अंधेरे को चीरें; छुआछूत के विरुद्ध गीत गाए जाएं, जो हृदय को छू लें। पदाधिकारियों, आपकी उपेक्षा अब न हो – इस दिवस को मनाकर एकता का संदेश फैलाएं, रोते हुए पुकारो!

*संतों की विरासत:* हे आधुनिक संतों, स्वार्थ की दीवारें तोड़ो – वे दीवारें जो हृदय को बांध लेतीं! भजन में समाज का दर्द घोलो, जैसा गुरुओं ने किया, जैसे कोई आंसू भजन में मिल जाए। उनकी पुकार सुनो – “भक्ति तो हृदय की है, लेकिन सेवा समाज की – रो-रोकर करो!” इन मनुवादी भजनों से समाज का उद्धार नहीं होने वाला, केवल भगवा संत नहीं, समाज सुधारक संत बनो।

*युवाओं का हृदयस्पर्शी योगदान:* सोशल मीडिया को हथियार बनाओ, लेकिन धरातल पर उतरो, जहां दर्द सांस लेता है। इस स्थापना दिवस पर सभाओं में आंसू बहाओ पूर्वजों के लिए, जैसे कोई बच्चा मां को याद करे, और संकल्प लो नई क्रांति का। ‘रैगर दिवस’ की भ्रांति को खारिज कर, सच्चे औचित्य को अपनाओ – आंसुओं से!

*बहनों का सशक्तिकरण:* समाज की माताओं-बहनों, तुम्हारा दर्द तो सबसे गहरा है, जैसे समंदर की गहराई। कुप्रथाओं और अंधविश्वास के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करो, क्योंकि एक मां का आंसू समाज को डुबो या बचा सकता है – ओ बहनों, बचाओ हमें! पदाधिकारियों से मांगो – इस दिवस को सम्मान दो, रो-रोकर!

याद रखो, संतों ने कहा था – “एकता में शक्ति है, लेकिन वह शक्ति आंसुओं से ही जन्म लेती है, जैसे कोई फूल वर्षा से खिले।” आज भारत चमक रहा है, लेकिन रैगर समाज को अपनी पहचान से रोशन करना होगा – शिक्षा से, जो आंसू मिटाए; उद्यम से, जो दर्द भुलाए; न्याय से, जो हृदय भर दे। हम दलित समाज की धड़कन बन सकते हैं, यदि हृदय से जागें – रोते हुए, लेकिन उठते हुए।

निष्कर्ष: नई सुबह के आंसू, स्वर्णिम भोर का वादा – उपेक्षा का अंत, एकता का करुण उदय

ओ मेरे भाइयों, बहनों, अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना दिवस का यही भावुक, हृदयविदारक औचित्य है – हमें रोना सिखाता है अपनी कमजोरियों पर, जैसे कोई मां अपने दुख पर सिसकती; लेकिन उठना सिखाता है गौरव के लिए, जैसे कोई सूरज आंसुओं से चमके। 2 नवंबर 1944 की वह चिंगारी आज भी सुलग रही है, तड़प रही है; बस हमें आंसुओं की वर्षा से उसे भड़काना है, जैसे कोई आग वर्षा में और तेज हो। ओ रैगर समाज, ओ मेरे दुखभरे बंधुओं, संतों की आत्मा पुकार रही है, सिसक रही है: “मेरे बंधुओं, लड़ो, एक हो जाओ, और चमको – रोते हुए, लेकिन विजयी होकर!” पदाधिकारियों, अफसोस की यह उपेक्षा अब बंद हो – इस पावन पर्व को अपनाओ, क्योंकि यही महासभा का सच्चा सम्मान है, जो आंसुओं से नहाया। यदि हम यह करेंगे, तो न केवल इतिहास गीला होगा आंसुओं से, बल्कि भविष्य नहाया होगा गौरव की किरणों से – किरणों जो दर्द से निकलीं।

आओ, फिर से जलाएं एकता का दीपक – वह दीपक जो आंसुओं से भरा है। यह स्थापना दिवस हमें याद दिलाता है कि एकजुट समाज ही सम्मान और अधिकार पा सकता है। यदि हम फिर से अपने संतों के आदर्शों को अपनाएं, तो रैगर समाज न केवल अपने गौरव को पुनः प्राप्त करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आत्मसम्मान और जागरूकता की एक नई, आंसू-सींची मिसाल बनेगा।

✊ “अखिल भारतीय रैगर महासभा की स्थापना दिवस मनाना नहीं, जीना सीखिए – रोते हुए, लेकिन हृदय से – क्योंकि यह हमारे अस्तित्व, एकता और संघर्ष की पहचान है।

जय रैगर समाज! जय एकता! जय उन संतों की अमर ज्योति, जो आज भी रो-रोकर पुकार रही!

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